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हिन्दी दिवस ,एक विचार

मृगत्रष्णा
मृगत्रष्णा
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हिन्दी दिवस
(एक विचार)
आज लगभग सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों के तथाकथित राजभाषा पेृमी बन्धु गण हर जगह अपने हिन्दी पेृम का बखान करते नजर आ रहें  हैं भले ही वह स्वयं और उनके परिवार के लोग आज भी निजी तौर पर अंग्रेज़ी भाषा का ही पृयोग स्वयं और अपने परिवार के वतर्मान और भविष्य के लिये उचित मानकर उसके ज्ञान वर्धन म अनवरत रूप से लगे हुये हों। इसका कारण  यह कत्तई नहीं है कि इन महापुरुषों के अन्तर्मन् में हिन्दी भाषा के लिये कोई पेृम ही नहीं है परन्तु इसलिये कि उन्हें अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी भाषा से दूरी बना कर अंग्रेजी भाषा को अपनी जीवन चर्या  के लिए आवश्यक बनाना ,ठीक उसी तरह से उनकी मजबूरी है जैसे कि किसी व्यक्ति का अपने भविष्य के लिये अपने गाँव, घर और परिवार को छोड कर विदेश में रहना  ।यह अलग का विषय है कि किसी देश की भाषा ही वहाँ की सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की वाहक होती है ,स्वभावतः हम भारतीयों का अंग्रेजी भाषा से जुडाव धीरे धीरे हमें न केवल अपनी सभ्यता और संस्कृति से भी दूर कर रहा है बल्कि हमारे बीच एकशुभ कामनाएँ नये वर्ग के जन्म का कारण भी बन रहा है जिसे अपनी सभ्यता, संस्कृति से स्वयं को  अलग करके दिखाने में अजीब तरह के आनन्द की अनुभूति होरही है,और हम केवल तमाशबीन आलोचक बन कर सन्तुष्ट नजर आ रहे हैं ,सच तो यह है इससे अधिक हम कुछ करना भी नहीं चाहते । हमारी राजभाषा हिन्दी की दुख भरी कहानी का सच यही है ।इसके लिये हम सब तो जिम्मेदार हैं ही।परन्तु हम सबसे भी अधिक अगर और कोई जिम्मेदार है तो वह हैं स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद से अब तक सत्ता का सुख भोग रहा पश्चिमी सभ्यता  की धूप छाँव में पला बढा इस देश का (विशेषतः हिन्दी भाषी क्षेत्रों का) हमारा राष्ट्रीय और राज्य स्तर  का राजनैतिक एवं तथाकथित बुद्धि जीवी वर्ग  जिनकी मानसिकता ने हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर की भाषा बनने  ही  नहीं दिया इतना ही नहीं समय समय पर इसके भाषा भाषियों कोअपमानित करने से भी कोई परहेज नहीं किया।इस सन्दर्भ में जो लोग हमारे दक्षिण भारतीयों को दोष देने का कार्य कर रहे हैं उनसे अधिक मूर्ख और कोई नहीं है , जब हम हिन्दी भाषी लोग ही इसे अपनाने से परहेज कर रहे हैं तो फिर हम उन्हें दोष कैसे दे सकते हैं  वस्तुतः किसी भाषा के विस्तार का मुख्य कारण सत्ता से उसकी नजदीकी से अधिक उसकी समृद्धि और लोकप्रियता होती है ।आज  विश्व पटल अंग्रेज़ी भाषा की सर्वाधिक स्वीकार्यता केवल इसलिये नहीं है कि  विश्व का ज्यादातर भाग कभी न कभी अंग्रेजों द्वारा शाषित रहा है बल्कि इसलिये भी कि आज के परिवेश में अंग्रेज़ी विश्व की सबसे अधिक सम्बृद्ध भाषा है ।पृत्तेक व्यक्ति  समाज के जीवन के लिये आवश्यक सूचनाए ,सम्भावनाएं और आवश्यक ज्ञान केवल इसी भाषा में  उपलब्ध हैं ।अत: अगर हम सब चाहते हैं हमारी राष्ट्र भाषा भी विस्तार प्राप्त जन जन की स्वाभाविक भाषा बन सके   तो इसके लिये इस भाषा की सम्बृध्दि इसकी पहली आवश्यकता है ताकि ज्ञान विज्ञान की तलाश में भटकते समबन्धित व्यक्ति को सभी सूचनाएं इसी भाषा में प्राप्त हो सकें।क्या इसके लिये हम सब ,हमारी सरकारेंऔर हमारा तथाकथित बौद्धिक वर्ग अपना अपना योगदान देने के लिये तैयार है यही एक यक्ष पृश्न है जिसका हल खोजे बिना इस भाषा की लोकप्रियता और विस्तार असम्भव  है ।
हिन्दी दिवस
(एक विचार)
आज लगभग सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों के तथाकथित राजभाषा पेृमी बन्धु गण हर जगह अपने हिन्दी पेृम का बखान करते नजर आ रहें  हैं भले ही वह स्वयं और उनके परिवार के लोग आज भी निजी तौर पर अंग्रेज़ी भाषा का ही पृयोग स्वयं और अपने परिवार के वतर्मान और भविष्य के लिये उचित मानकर उसके ज्ञान वर्धन म अनवरत रूप से लगे हुये हों। इसका कारण  यह कत्तई नहीं है कि इन महापुरुषों के अन्तर्मन् में हिन्दी भाषा के लिये कोई पेृम ही नहीं है परन्तु इसलिये कि उन्हें अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी भाषा से दूरी बना कर अंग्रेजी भाषा को अपनी जीवन चर्या  के लिए आवश्यक बनाना ,ठीक उसी तरह से उनकी मजबूरी है जैसे कि किसी व्यक्ति का अपने भविष्य के लिये अपने गाँव, घर और परिवार को छोड कर विदेश में रहना  ।यह अलग का विषय है कि किसी देश की भाषा ही वहाँ की सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की वाहक होती है ,स्वभावतः हम भारतीयों का अंग्रेजी भाषा से जुडाव धीरे धीरे हमें न केवल अपनी सभ्यता और संस्कृति से भी दूर कर रहा है बल्कि हमारे बीच एकशुभ कामनाएँ नये वर्ग के जन्म का कारण भी बन रहा है जिसे अपनी सभ्यता, संस्कृति से स्वयं को  अलग करके दिखाने में अजीब तरह के आनन्द की अनुभूति होरही है,और हम केवल तमाशबीन आलोचक बन कर सन्तुष्ट नजर आ रहे हैं ,सच तो यह है इससे अधिक हम कुछ करना भी नहीं चाहते । हमारी राजभाषा हिन्दी की दुख भरी कहानी का सच यही है ।इसके लिये हम सब तो जिम्मेदार हैं ही।परन्तु हम सबसे भी अधिक अगर और कोई जिम्मेदार है तो वह हैं स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद से अब तक सत्ता का सुख भोग रहा पश्चिमी सभ्यता  की धूप छाँव में पला बढा इस देश का (विशेषतः हिन्दी भाषी क्षेत्रों का) हमारा राष्ट्रीय और राज्य स्तर  का राजनैतिक एवं तथाकथित बुद्धि जीवी वर्ग  जिनकी मानसिकता ने हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर की भाषा बनने  ही  नहीं दिया इतना ही नहीं समय समय पर इसके भाषा भाषियों कोअपमानित करने से भी कोई परहेज नहीं किया।इस सन्दर्भ में जो लोग हमारे दक्षिण भारतीयों को दोष देने का कार्य कर रहे हैं उनसे अधिक मूर्ख और कोई नहीं है , जब हम हिन्दी भाषी लोग ही इसे अपनाने से परहेज कर रहे हैं तो फिर हम उन्हें दोष कैसे दे सकते हैं  वस्तुतः किसी भाषा के विस्तार का मुख्य कारण सत्ता से उसकी नजदीकी से अधिक उसकी समृद्धि और लोकप्रियता होती है ।आज  विश्व पटल अंग्रेज़ी भाषा की सर्वाधिक स्वीकार्यता केवल इसलिये नहीं है कि  विश्व का ज्यादातर भाग कभी न कभी अंग्रेजों द्वारा शाषित रहा है बल्कि इसलिये भी कि आज के परिवेश में अंग्रेज़ी विश्व की सबसे अधिक सम्बृद्ध भाषा है ।पृत्तेक व्यक्ति  समाज के जीवन के लिये आवश्यक सूचनाए ,सम्भावनाएं और आवश्यक ज्ञान केवल इसी भाषा में  उपलब्ध हैं ।अत: अगर हम सब चाहते हैं हमारी राष्ट्र भाषा भी विस्तार प्राप्त जन जन की स्वाभाविक भाषा बन सके   तो इसके लिये इस भाषा की सम्बृध्दि इसकी पहली आवश्यकता है ताकि ज्ञान विज्ञान की तलाश में भटकते समबन्धित व्यक्ति को सभी सूचनाएं इसी भाषा में प्राप्त हो सकें।क्या इसके लिये हम सब ,हमारी सरकारेंऔर हमारा तथाकथित बौद्धिक वर्ग अपना अपना योगदान देने के लिये तैयार है यही एक यक्ष पृश्न है जिसका हल खोजे बिना इस भाषा की लोकप्रियता और विस्तार असम्भव  है ।

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